भारतीय संस्कृति में कई ऐसे नाम हैं जो आज भी हमें अपने विचारों से प्रेरित करते हैं। उन्हीं में से एक हैं नाम है कबीर दास जी (Kabir Das Ke Dohe)। जिन्हे भक्तिकालीन निर्गुण धरा के ज्ञानमार्गी शाखा के कवि के रूप में जाना जाता है। उन्होंने न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक सुधार के कामों में भी अपना अहम योगदान दिया है। इस आज हम इस ब्लॉग आर्टिकल में Kabir Das Ke Dohe Arth Sahit विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे। 

कबीर दास जी को धर्म प्रचारक के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि उन्होंने धर्म की ऐसी नींव रखी थी जिसे आज भी कोई असत्य साबित नहीं कर सकता है। कबीर ने मूर्ति पूजा का भी विरोध किया था और उनका मानना था कि भगवान की प्राप्ति पूजा करने से नहीं, ज्ञान हासिल करने से प्राप्त होते हैं।

उन्होंने समाज में व्याप्त वैषम्य, अंधविश्वास और उसकी प्रवृतियों पर व्यंग्य किया और उन्हें झूठा साबित किया। कबीर दास का जीवन परिचय पढ़ने के लिए क्लिक करे ! 

Kabir Das Ke Dohe Arth Sahit

कबीर ईश्वर को निराकार मानते थे और मूर्ति पूजा का खंडन करते थे। वे ईश्वर की प्राप्ति के लिए ज्ञान को साधन मानते थे। उन्होंने अपने दोहों और कविताओं में योग-साधना के गुप्त रहस्यों को भी प्रस्तुत किया।

कबीर ने निराकार ईश्वर को प्राप्त करने के लिए इन्द्रिय संयम, ज्ञान मार्ग और योग साधना को महत्वपूर्ण माना। उनकी कविताओं में प्रेम की अपार अनुभूति भी स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित होती है।

Kabir Das Ke Dohe #1

जात न पूछिए साध की , पूछ लीजिये ज्ञान। 

मोल करो तलवार का ,पड़ी रेन दो म्यान ।। 

पहली पंक्ति: किसी संत या साधु की जाति के बारे में मत पूछो, बल्कि उसके ज्ञान के बारे में पूछो।

दूसरी पंक्ति: तलवार की कीमत उसके म्यान (मायके) में नहीं होती, बल्कि खुद तलवार में होती है।

सरल शब्दों में:

  • किसी व्यक्ति को उसकी जाति के आधार पर नहीं आंकना चाहिए, बल्कि उसके ज्ञान और गुणों को देखना चाहिए।
  • किसी चीज की असली कीमत उसकी बाहरी चीजों में नहीं, बल्कि उसके असली गुणों में होती है।

व्याख्या:

किसी गुरु की तलाश करते समय, हमें उनकी जाति या सामाजिक स्थिति पर ध्यान नहीं देना चाहिए, बल्कि उनके ज्ञान और समझ पर ध्यान देना चाहिए।
किसी को नौकरी पर रखते समय, हमें उनकी जाति या लिंग पर नहीं, बल्कि उनके कौशल और अनुभव पर ध्यान देना चाहिए।
दोस्त बनाते समय, हमें उनकी शक्ल या सामाजिक स्थिति पर नहीं, बल्कि उनके चरित्र और व्यक्तित्व पर ध्यान देना चाहिए।

Kabir Das Ke Dohe #2 

माली आवत देखकर ,कलियन करी पुकारी। 

फुले – फुले चुन लिए काल ही हमारी बारी।।

अर्थ : कबीर दास के इस दोहे में माली, कलि, फूल और कल की बात की गई है। इस दोहे से यह समझना बहुत सरल है कि जीवन में सब कुछ अस्थायी है और यह समझना बहुत जरूरी है कि हम सबको एक दिन जाना होता है।

दोहे की व्याख्या करते हुए, माली का अर्थ काल या मृत्यु से है। कलि का मतलब युवा पीढ़ी से है और फूल का मतलब बुढ़ों से है। इस दोहे में कहा जाता है कि जब माली काल आता है, तो कलियों की पुकार लगती है कि हमारी बारी आ गयी है। उसके बाद माली फूलों को तोड़ लेता है और फिर कल हमारी बारी होती है।

इस दोहे का संदेश है कि हम सब को एक दिन जाना है। इसलिए, हमें सभी को समान रूप से संभालना चाहिए। किसी भी व्यक्ति के जाति या स्थान से कुछ नहीं होता है, बल्कि ज्ञान ही व्यक्ति की पहचान होती है। इसलिए, हमें लोगों के कर्मों को देखना चाहिए और उन्हें उनके कार्यों के आधार पर ही माना जाना चाहिए।

 Kabir Das Ke Dohe #3

दुर्बल को न सताइए ,जाकी मोटी हाय। 

मरी चाम की स्वांस से ,लौह भसम हुई जाय ।। 

अर्थ :- दुर्बल व्यक्ति को आपत्तिजनक बनाना नहीं चाहिए। यह इसलिए है कि दुर्बल व्यक्ति दुखी होकर अक्सर श्राप देता है, जिससे श्राप का प्रभाव सीधे उस व्यक्ति के हित में नहीं होता है। इससे बल प्राप्त व्यक्ति का नुकसान होता है।

ऐसे में, हमें दुर्बल व्यक्ति को उसकी स्थिति से ऊपर उठाने की आवश्यकता है। हमें उसे मार्गदर्शन देना चाहिए और उसका समर्थन करना चाहिए ताकि उसका स्वभाव बलवान हो सके।

यह एक सत्य है कि लौहार चमड़े से की फुकनी से लौहे को पिघला देता है और उसे भस्म कर देता है। उसी तरह, हमें दुर्बल व्यक्ति को समझाने और उसे समर्थन देने की जरूरत है ताकि वह बलवान हो सके और सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंच सके।

Kabir Das Ke Dohe #4

साईं इतना दीजिये ,जामैं कुटुम समाय। 

मैं भी भूखा ना रहूँ ,साधु न भूखा जाय।।

अर्थ :-  कबीर दास जी एक महान संत थे जिन्होंने अपने जीवन में ईश्वर से सिर्फ इतनी मांग की जितनी से वे अपने परिवार का उत्तरदायित्व निभा सकते थे। वे धन की भी मांग नहीं करते थे, क्योंकि धन का उपयोग समझदारी से नहीं किया जाता तो उससे मनुष्य का विनाश हो सकता है।

इसलिए, कबीर दास जी कहते हैं कि यदि कोई साधु-संत अथवा व्यक्ति उनके घर आते हैं तो उन्हें भूखा नहीं लौटने देना चाहिए। यह सबक हमें ये देता है कि हमें धन के लोभ से दूर रहना चाहिए और हमेशा अपने जीवन में समझदारी से धन का उपयोग करना चाहिए। अधिक धन होने से हमारी मतलब से बढ़ती है, लेकिन इससे हमें अपने विनाश की और जाने की आशंका होती है।

Kabir Das Ke Dohe #5

जाती हमारी आत्मा ,प्राण हमारा नाम। 

अलख हमारा इष्ट है ,गगन हमारा ग्राम।।

अर्थ :- इस दोहे में, कबीर दास जी ने शरीर में मौजूद आत्मा को जाति बताकर स्पष्ट किया है और अपने आप को प्राण कहा है। कबीर जी के ईश्वर अनूठे हैं और उनका गुणगान करना हर किसी का भाग्य नहीं होता है।

जिन लोगों पर उनकी कृपा होती है, वे पल भर में उनसे मिल जाते हैं। यहाँ ‘गगन हमारा ग्राम’ से मतलब है कि योगियों के प्राण सातवां चक्र सहित ब्रह्मांड में निवास करते हैं और उनका गाँव गगन में होता है।

Kabir Das Ke Dohe #6

कामी क्रोधी और लालची ,इनसे भक्ति न होय। 

भक्ति करे कोई शूरमाँ , जाती वरण कुल खोय।।

अर्थ :- कबीर दास जी के अनुसार, जो व्यक्ति काम, वासना, अधिक क्रोध या लालच में रत है, वह कभी भी भगवान की भक्ति नहीं कर सकता। भक्ति करना दुर्लभ होता है और लाखों-करोड़ों में से कोई विरला व्यक्ति ही उसे कर सकता है। वह व्यक्ति अपनी जाति, वर्ण और परिवार को भूलकर, भगवान में ध्यान लगाता हुआ उसकी भक्ति करता है।

नोट :- यहां उल्लेख करना जरूरी है कि परिवार को भूलने का अर्थ परिवार को छोड़ देना नहीं है। असल में, कुछ समय परिवार से दूर होना और मन को भगवान में लगाना उस समय उसका मतलब होता है। यह मानव जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे हम अपने आप को संतुलित रखते हैं और भगवान के प्रति अपने समर्पण को भी सुनिश्चित करते हैं।

Kabir Das Ke Dohe #7

ऊँचै कुल में जनमियाँ ,जे करणी ऊँच न होई। 

सोवन कलस सुरै भरया ,साधू निंध्या सोइ।।

अर्थ :- कबीर दास जी ने यह स्पष्ट किया है कि जिस परिवार में जन्म लेना होता है, उसके ऊँचाई-नीचाई से कुछ नहीं होता। व्यक्ति की श्रेष्ठता उसके कर्मों से होती है। उन्होंने इस बात का उदाहरण देकर बताया कि कलस में सोने का अगर सूरा भरा हो, तो उसकी मूल्यवानता कम हो जाती है। इसी तरह, यदि व्यक्ति अच्छे कर्म नहीं करता है, तो उसे सज्जन लोग भी अपवित्र मानते हैं।

Kabir Das Ke Dohe #8

 तरवर तास बिलंबिए ,बारह मास फलंत। 

सीतल छाया गहर फल ,पंखी केलि करंत।।

अर्थ :-  कबीर जी का मतलब यह है कि हमें एक ऐसे वृक्ष के नीचे विश्राम करना चाहिए जिस पर प्रत्येक माह फल लगते हों, जिसकी छाँव गहरी हो और जहां पक्षी किलकारी मारते हों। यह वृक्ष हमें आनंद देता है और हमारी तनाव से मुक्ति दिलाता है। इससे हमें आत्मा की शांति मिलती है और हम अपने जीवन का आनंद भी बढ़ा सकते हैं।

Kabir Das Ke Dohe #9

जब गुण कूँ गाहक मिलै ,तब गुण लाख बिकाइ। 

जब गुण कौं गाहक नहीं ,कौड़ी बदलै जाइ।।

अर्थ :- कबीर दास जी के अनुसार, अच्छे गुणों का महत्व उन लोगों के लिए होता है जो उन गुणों की पहचान कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, अगर कोई व्यक्ति बहुत सारे अच्छे गुणों से सुसज्जित हो लेकिन उसका ग्राहक यानि उन गुणों की परख करने वाला नहीं मिलता, तो उसके अच्छे गुणों का कोई महत्व नहीं होता। अन्यथा, मूर्खों को उपदेश देना व्यर्थ होता है क्योंकि वे उसे समझने में असमर्थ होते हैं। विद्वान लोग ऐसे मूर्खों से बहस नहीं करते क्योंकि उन्हें पता होता है कि उससे कुछ नहीं होगा।

Kabir Das Ke Dohe #10

सरपहि दूध पिलाइये ,दूधैं विष हुई जाइ। 

ऐसा कोई ना मिलै ,सौं सरपैं विष खाइ।।

अर्थ :- साँप को दूध पिलाने से कोई लाभ नहीं होता क्योंकि इससे दूध विषैला हो जाता है। विष की तुलना में दूध नीचे का पदार्थ होता है। इसलिए यह एक मिथ्या है कि साँप को दूध पिलाने से वह बड़ा और सक्रिय हो जाता है। यह सत्य है कि भगवान शंकर ने संकट से निवारण के लिए विष पिया था और मीरा बाई ने प्रभु भक्ति में विष पिया था। लेकिन यह सिद्ध करना कि साधारण मनुष्य भी विष पी सकते हैं, यह सही नहीं है। विष एक जहरीली वस्तु होती है जिसे सेवन करना जानलेवा हो सकता है।

Kabir Das Ke Dohe #11

करता केरे बहुत गुणं ,आगुणं कोई नांहि। 

जे दिल खोजौं आपणौं,तो सब औंगुण मुझ मांहि।।

अर्थ:- कबीर जी कहते हैं कि कर्ता में अनेक गुण होते हैं, लेकिन अवगुण कोई नहीं होता। वे अपने आप में गुणों को देखते हुए कहते हैं कि सभी अवगुण मुझमें ही हैं।

Kabir Das Ke Dohe #12

जात हमारी ब्रम्ह है ,मात – पिता है राम।

गृह हमारा शून्य है। अनहद में विश्राम।।

अर्थ:- कबीर जी आत्मा को संबोधित करते हुए कहते हैं कि उनकी जाति ब्रह्म के समान है, माता-पिता एक परम तत्व ईश्वर हैं, घर शून्य यानी निराकार है, और भगवान के हाथ में स्थित अनहद शंख में उनकी वास्तविकता अवस्थित है।